रोज़ मिलने की खवाहिश
और
कभी ना मिलने के अहद में
उलझी ज़िन्दगी
कसाई की दुकान पर ,हुक से टंगे
उल्टे लटके बकरे सी हो गयी है
सीने से खून टपकता है
कपडा मार कसाई हर नए ग्राहक से
पूछ लेता है ,क्या दूं साहिब ?
एक रोता दिल,एक फूंका जिगर ,या फिर
एक बेचैन ज़ेहन ?
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रूह कसाई अब भी नहीं बेचता
जो मेरे पास नहीं
तुम्हारे पास नहीं
कैसे बेचेगा ?
हाँ बाँट सकता है हकीमों की मानिंद
हमारे दर्द की पुड़ियाँ
चाहतों के जंगल में ,पहली बार आये
नए सैलानियों को
बांटते बांटते बताएगा भी
ले जाओ ,पर सो नहीं पाओगे
आज के बाद .....
_____________ दीपक अरोड़ा
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