हम कुछ ऐसे निकले तेरी यादों से,
जैसे फिसल जाती है रेत हाथों से
कुछ वादे और मज्बूरिओं का रोना,
बस दर्द ही मिले मुलाकातों से
किया करते थे इंतज़ार कभी बेसब्री से,
अब खौफ सा आता है उन रातों से
जाने कैसे बन गए अंगारे वो फूल,
जो झड़ा करते थे कभी तेरी बातों से
फूलों ने तो सदा ज़ख्म ही दिए हैं,
मुझे राहत मिली तो बस काँटों से
खुदा को भूले और हो चले हैं मुनकिर,
कुछ यूं परेशां हुए हैं हम हालातों से
deep
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