पहले से कमजोर हुई है चुप्प रहती है रोज पुरानी इमारत सी कुछ ढहती है मैं किसी नए बसे शहर सा रहता हूँ मस्त वो अधसूखी नदी सी बहती रहती है मेरी बलाएँ सारी अपने सर पे लेकर पूजाघर में बैठी कितनी खुश रहती है
जब तक घर न जाऊ कुछ सहमी सी एकटक दरवाजे को तकती रहती है थाली भर खा के जब उठने लगता हूँ बस एक निवाला और ,माँ कहती है .......................कोमलदीप