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यातनाएं *******
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ਬਿੱਟੂ ਕਲਾਸਿਕ
Posts:
2441
Gender:
Male
Joined:
12/Nov/2011
Location:
New Delhi
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यातनाएं *******
यातनाएं
*******
बदला कुछ भी नहीं
यह देह उसी तरह दर्द का कुआं है।
इसे खाना, सांस लेना और सोना होता है।
इस पर होती है महीन त्वचा
जिसके नीचे ख़ून दौड़्ता रहता है।
इसके दांत और नाख़ून होते हैं।
इसकी हड्डियां होती हैं जिन्हें तोड़ा जा सकता है।
जोड़ होते हैं जिन्हें खींचा जा सकता है।
बदला कुछ भी नहीं।
देह आज भी कांपती है उसी तरह
जैसे कांपती थी
रोम के बसने के पूर्व और पश्चात्।
ईसा के बीस सदी पूर्व और पश्चात्
यातनाएं वही-की-वही हैं
सिर्फ़ धरती सिकुड़ गई है
कहीं भी कुछ होता है
तो लगता है हमारे पड़ोस में हुआ है।
बदला कुछ भी नहीं।
केवल आबादी बढ़ती गई है।
गुनाहों के फेहरिस्त में कुछ और गुनाह जुड़ गए हैं
सच्चे, झूठे, फौरी और फर्जी।
लेकिन उनके जवाब में देह से उठती हुई चीख
हमेशा से बेगुनाह थी, है और रहेगी।
बदला कुछ भी नहीं
सिवाय तौर-तरीकों, तीज-त्यौहारों और नृत्य-समारोहों के।
अलबत्ता मार खाते हुए सिर के बचाव में उठे हुए हाथ की मुद्रा वही रही।
शरीर को जब भी मारा-पीटा, धकेला-घसीटा
और ठुकराया जाता है,
वह आज भी उसी तरह तड़पता ऐंठता
और लहूलुहान हो जाता है।
बदला कुछ भी नहीं
सिवाय नदियों, घाटियों, रेगिस्तानों
और हिमशिलाओं के आकारों के।
हमारी छोटी-सी आत्मा दर-दर भटकती फिरती है।
खो जाती है, लौट आती है।
क़्ररीब होती है और दूर निकल जाती है
अपने आप से अजनबी होती हुई।
अपने अस्तित्व को कभी स्वीकारती और कभी नकारती हुई।
जब कि देह बेचारी नहीं जानती
कि जाए तो कहां जाए।
____________________ विस्सावा शिंबोर्स्का (अनुवाद: विजय अहलूवालिया )
यातनाएं
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बदला कुछ भी नहीं
यह देह उसी तरह दर्द का कुआं है।
इसे खाना, सांस लेना और सोना होता है।
इस पर होती है महीन त्वचा
जिसके नीचे ख़ून दौड़्ता रहता है।
इसके दांत और नाख़ून होते हैं।
इसकी हड्डियां होती हैं जिन्हें तोड़ा जा सकता है।
जोड़ होते हैं जिन्हें खींचा जा सकता है।
बदला कुछ भी नहीं।
देह आज भी कांपती है उसी तरह
जैसे कांपती थी
रोम के बसने के पूर्व और पश्चात्।
ईसा के बीस सदी पूर्व और पश्चात्
यातनाएं वही-की-वही हैं
सिर्फ़ धरती सिकुड़ गई है
कहीं भी कुछ होता है
तो लगता है हमारे पड़ोस में हुआ है।
बदला कुछ भी नहीं।
केवल आबादी बढ़ती गई है।
गुनाहों के फेहरिस्त में कुछ और गुनाह जुड़ गए हैं
सच्चे, झूठे, फौरी और फर्जी।
लेकिन उनके जवाब में देह से उठती हुई चीख
हमेशा से बेगुनाह थी, है और रहेगी।
बदला कुछ भी नहीं
सिवाय तौर-तरीकों, तीज-त्यौहारों और नृत्य-समारोहों के।
अलबत्ता मार खाते हुए सिर के बचाव में उठे हुए हाथ की मुद्रा वही रही।
शरीर को जब भी मारा-पीटा, धकेला-घसीटा
और ठुकराया जाता है,
वह आज भी उसी तरह तड़पता ऐंठता
और लहूलुहान हो जाता है।
बदला कुछ भी नहीं
सिवाय नदियों, घाटियों, रेगिस्तानों
और हिमशिलाओं के आकारों के।
हमारी छोटी-सी आत्मा दर-दर भटकती फिरती है।
खो जाती है, लौट आती है।
क़्ररीब होती है और दूर निकल जाती है
अपने आप से अजनबी होती हुई।
अपने अस्तित्व को कभी स्वीकारती और कभी नकारती हुई।
जब कि देह बेचारी नहीं जानती
कि जाए तो कहां जाए।
____________________ विस्सावा शिंबोर्स्का (अनुवाद: विजय अहलूवालिया )
Yoy may enter
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13 Jan 2013
j
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2871
Gender:
Male
Joined:
18/Nov/2011
Location:
beautifull
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ਖੂਬ
.....tfs.....
ਖੂਬ
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14 Jan 2013
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